Official Blog of Ambrish Shrivastava: भारत में दहेज का मनोविज्ञान

Friday, April 14, 2017

भारत में दहेज का मनोविज्ञान

दहेज़, ये शब्द सुनते है एक शोषक और एक शोषित का चेहरा नजर आने लगता है, जिसमे बधु पक्ष के लोग शोषित नजर आते है वही वर पक्ष के लोग शोषक नजर आते है, पर क्या वास्तव में ये कुरीति थी या इसे लोगो ने व्यक्तिगत लाभ के लिए इक निकृश्ट कोटि का बना दिया है।

भारतीय समाज में दहेज़ को इस तरह से बनाया गया था, द + हेज, यहाँ डी का मतलब था दोहिता यानि की पुत्री और हेज का मतलब था स्नेह, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था, और पहले दहेज़ में दी जाने बाली बस्तुए होती थी, जो की मेने खुद अपने बचपन में देखि थी

१- १०० किलो आटा
२- ५० किलो चावल
३- दालें
४- और सब घर गृहस्ती के सामान होते है

धन का लें देन मेने १९८८ तक नहीं देखा था।

वही दूसरी तरफ वर पक्ष की तरफ से सोने के जेवर आते थे कन्या के लिए जो की एक अच्छी खासी कीमत के होते थे, मूल बात ये थी, की समाज ये मान कर चलता था की दो लोग एक नयी गृहस्ती बसाने जा रहे है, और अपने पेरो पर भी खड़ा होना है, जीवन के सुख भी भोगने है, इसलिए १ साल तक इनको रासन और अन्य घरेलु चीजों की चिंता न हो इसलिए कन्या पक्ष की तरफ से ये सभी वस्तुए दी जाती थी, जो की स्वैक्षिक होती थी, वर पक्ष मांगता नहीं था, ये तो हिंदी फिल्मो में भारतीय परम्परा को बदमान करने के लिए दिखा देते थे की वर के पिता ने ३ फेरे के बाद बोलै की आगे की शादी तभी होगी जब मोटर सायकिल मिलेगी, वास्तविक समाज में कोई करता तो धुना  जाता तबियत से।

दूसरी तरफ वर पक्ष से जो स्वर्ण आभूषण दिए जाते थे उनका उद्देश्य था की अगर सब ठीक है तो कोई बात नहीं लेकिन अगर कल को कोई आर्थिक विपन्नता  आये तो स्वर्ण आभूषण के रूप में इनके पास एक जमा पूंजी है जिसके बल पर ये अपनी जीवन की गाड़ी खींच सकते है और बिना किसी के आगे हाथ फैलाये अपने पेरो पर फिर से खड़े हो सकते है।

अब इसमें विकृत कहाँ से आयी 

इसमें विकृति लाने के जिम्मेदार है आप जैसे कुछ प्रगतिशील लोग, जो लड़की वालो के ये घर गृहस्ती के सामान नहीं लेना चाहते थे, पर एक बेटी प् पिता देनाचाहता था, तो प्रगतिशील लोगो ने तर्क दिया की आप भी सामान खरीदोगे और फिर हमे दोगे, इससे अच्छा है वो पैसा आप हमे देदो, हम अपनी जरुरत के हिसाब से लेते रहेंगे, क्युकी आप ख़रीदे, हमले जाये, रस्ते में टूट फुट हो जाये, ये बात बेटी बाले को भी ठीक लगी, लेकिन सभी सामान का जब मूल्य जोड़ा तो वो करीब करीब आज के समय का ५०-६० हजार होगा [खाने के आता चावल दाल, ड्रेसिंग टेबल, पलंग, इत्यादि ] अब इस तरफ शुरू में तो सब ठीक रहा, अब देश की १०० करोड़ की आबादी, है, स्थान, जाती, संगत के हिसाब से लोगो की इक्षाएं और लालच अलग अलग है।

किसी को १०-२० हजार ज्यादा मिल गया और उसने उसमे मोटर सायकल खरीद ली और किसी ने पूछा तो बता दिया की बहु के मायके से मिली है, अब दूसरे को भी लगा की हमे भी ले लेनी चईये, बस यही से विकृत आणि शुरू हो गयी, आज जो आप इस दहेज़ का विकृत रूप देख रहे हो ये विकृति दहेज़ में नहीं है, ये विकृति विकृत मानसिकता के लोगो के देन  है 


बाद में लोगो ने इसे सामाजिक प्रतिस्ठा से भी जोड़ दिया, की मेरे बेटे की शादी में ये मिला, मेरी बहु मायके से ये लायी तुम्हारी बहु क्या लायी, और यकीन मानिये इस काम को वर ने, या वर के पिता ने या वर के भाई ने नहीं किया, इस काम को वर की माँ ने किया या उसकी बहिन ने किया, जो की खुद भी स्त्रियाँ ही है, तो दहेज़ बुरा कभी था ही नहीं, क्युकी ये माँगा नहीं जाता था, ये जो दहेज़ के नाम पर लुटम पाट शुरू हुयी है ये विकृति लोगो के दिमाग की है, उन सास और नन्दो की जो दिन भर घर रहकर उस नयी नवेली बहु को मानसिक पीड़ा देती थे, और इन सब कांडो में बदमान पुरुष होता रहा, मतलब करे कोई गालिया पुरुष खाये।  दहेज़ के साथ विकृति कैसे जुडी इसे एक ज्वलंत उदाहरण से समझिये, नीचे दिया है।
क्या नितीश कुमार नरेंद्र मोदी को हटा कर प्रधान मंत्री सकते है?
जैसे शराब इतनी बुरी नहीं है, जितना बुरी तरह या बुरे काम में लोग शराब का प्रयोग करते है, शराब दवा भी है, और ज्यादा हो जाये तो जहर भी है, ये विकृति पीने बाले की बजह से है, न की शराब की बजह से, लोग खाने से पहले १ पेग लेते है और ७० साल तक स्वस्थ रहते है और एक रिक्शे बाला रोज पौआ पीता  और नशे में ही मर जाता है, तो आप किसे गलत कहेगे, पिने बाले को न की शराब को, क्युकी शराब आप अपनी धारण क्षमता के अनुसार पियो, न की दूसरे की तरफ से मुफ्त मिल रही है इसलिए पीते जाओ। 

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